प्रारब्ध क्या है?
हर इंसान कभी न कभी यह सवाल ज़रूर पूछता है —
“मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ?”
यही सवाल हमें प्रारब्ध कर्म (Prarabdha Karma) के रहस्य की ओर ले जाता है।
संस्कृत में “प्रारब्ध” का अर्थ है — जो आरंभ हो चुका है।
अर्थात्, जो कर्म पहले किए जा चुके हैं और अब फल देने के लिए तैयार हैं — वही प्रारब्ध कहलाते हैं।
यह हमारे जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिन्हें हम इस जन्म में भोग रहे हैं — चाहे वह सुख हों या दुख।

प्रारब्ध, संचित और क्रियमान कर्म में अंतर
भारतीय दर्शन में कर्म को तीन भागों में बाँटा गया है:
1. संचित कर्म (Sanchit Karma):
जो अनेक जन्मों में संचित हुए कर्मों का भंडार है।
2. प्रारब्ध कर्म (Prarabdha Karma):
जो इस जन्म में फल देने के लिए तैयार हैं।
3. क्रियमान कर्म (Kriyaman Karma):
जो हम इस समय कर रहे हैं, और भविष्य में प्रारब्ध बनेंगे।
👉 सरल शब्दों में —संचित बीज है, प्रारब्ध फसल है, और क्रियमान आज की बुवाई।
Premanand Ji Maharaj के अनुसार प्रारब्ध क्या है?
प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं —>
“जो घट रहा है, वह प्रारब्ध है; जो तुम कर रहे हो, वह पुरुषार्थ है।”
उनके अनुसार हमें प्रारब्ध को स्वीकार करके पुरुषार्थ (सत्कर्म) में लग जाना चाहिए। विरोध करने पर मन विचलित होता है, लेकिन स्वीकार करने पर मन शांत होता है। महाराज जी मानते हैं कि प्रारब्ध हमें दुख नहीं देता, बल्कि हमें सीखने का अवसर देता है।
Osho के अनुसार प्रारब्ध क्या है?
ओशो प्रारब्ध को “जीवन का प्रतिबिंब” मानते हैं।
वे कहते हैं —> “जो तुमने बोया है, वही अब घट रहा है। यह कोई दंड नहीं, बल्कि जीवन की व्यवस्था है।”
ओशो के अनुसार, जब व्यक्ति अपने अनुभवों को साक्षीभाव से देखने लगता है, तब प्रारब्ध उसे घुमाता नहीं, बल्कि जगाता है।उनकी दृष्टि में प्रारब्ध एक शिक्षक है — जो हमें हमारे कर्मों का प्रतिबिंब दिखाता है।
Paramhansa Yogananda जी का दृष्टिकोण
परमहंस योगानंद जी कहते हैं —>
“कर्म तुम्हें बाँधता नहीं, अज्ञान बाँधता है।”
उनके अनुसार, जब व्यक्ति यह समझता है कि वह आत्मा है, शरीर नहीं, तब प्रारब्ध की शक्ति उस पर कम हो जाती है।योगानंद जी का कहना है कि ध्यान (Meditation) और क्रिया योग के माध्यम से व्यक्ति अपने कर्मों की ऊर्जा को जला सकता है।
उनके अनुसार: प्रारब्ध केवल अहंकार को प्रभावित करता है।आत्मा सदैव मुक्त रहती है। जब व्यक्ति ईश्वर से एकत्व का अनुभव करता है, प्रारब्ध का प्रभाव मिट जाता है।
Bhagavad Gita का दृष्टिकोण
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं —>
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
अर्थात् — तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।यहाँ “फल” ही प्रारब्ध का क्षेत्र है।भगवान कृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि जब हम फल की चिंता छोड़ देते हैं, तब प्रारब्ध हमें बांध नहीं पाता। सुख-दुख में समभाव ही योग है।
प्रारब्ध दिमाग को क्यों घुमा देता है?
मनुष्य का मन कंट्रोल चाहता है।
जब कुछ हमारी इच्छा के अनुसार नहीं होता, तो मन विरोध करता है — यही मानसिक तनाव है।
प्रारब्ध वही घटनाएँ हैं जिन्हें हम बदल नहीं सकते।
जैसे ही व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है कि “यह मेरा ही कर्मफल है”,
दिमाग शांत हो जाता है और जीवन एक नई दिशा ले लेता है।
प्रारब्ध से ऊपर उठने के उपाय
1. स्वीकार (Acceptance): जो है, उसे स्वीकार करो।
2. साधना और ध्यान: इससे चित्त स्थिर होता है।
3. साक्षीभाव (Witnessing): घटनाओं को केवल देखो, प्रतिक्रिया मत दो।
4. सत्कर्म और सेवा: नए अच्छे कर्म पुराने कर्मों की तीव्रता को कम करते हैं।
5. ईश्वर से एकत्व का भाव: इससे प्रारब्ध का प्रभाव घटता है।
निष्कर्ष
प्रारब्ध हमारे पूर्वकर्मों का परिणाम है।
प्रेमानंद जी सिखाते हैं – स्वीकार करो और पुरुषार्थ करो।ओशो कहते हैं – साक्षी बनो।
गीता कहती है – कर्म करो, फल की चिंता छोड़ो।
योगानंद जी कहते हैं – ध्यान और ईश्वर भक्ति से प्रारब्ध से ऊपर उठो।
जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि जीवन में जो कुछ हो रहा है, वह सज़ा नहीं बल्कि सीख है,
तब प्रारब्ध उसे घुमाता नहीं, बल्कि जगाता है।